अमेरिकन कपास में पत्तों से रस चूस कर गुज़ारा करने वाले मुख्य कीटों में से एक है यह तेला। यह तोतिया रंग का होता है जिसे हरियाणा में हरे तेले के रूप में जाना जाता है। अंग्रेज इसे aphid कहते है। जीव-जंतुओं के नामकरण की द्विपदी प्रणाली के मुताबिक यह कीट Cicadellidae कुल के Amrasca biguttula के रूप में नामित है।
लोहार की छेनी जैसा दिखाई देना वाला यह कीट लगभग तीन मिलीमीटर लंबा होता है। इसकी चाल रोडवेज की लाइनआउट खटारा बस जैसी होती है। स्वभावगत यह कीट लाइट पर लट्टू होने वाले कीटों में शुमार होता है।
तेला के प्रौढ़ एवं निम्फ, दोनों ही पौधों के पत्तों से रस चूस कर अपना गुज़ारा करते है। ये महानुभाव तो रस चूसने की प्रक्रिया में पत्तों में जहर भी छोड़ते हैं। रस चूसने के कारण प्रकोपित पत्ते पीले पड़ जाते हैं तथा उन पर लाल रंग के बिन्दिनुमा महीन निशान पड़ जाते हैं। ज्यादा प्रकोप होने पर पुरा पत्ता ही लाल हो जाता है तथा निचे की ओर मुड़ जाता है। अंत में पत्ता सुख कर निचे गिर जाता है।
तेले की सिवासन मादा अपने जीवन काल में तकरीबन 30-35 अंडे पत्तों की निचली सतह पर मध्यशिरा या मोटी नसों के साथ तंतुओं के अंदर देती है। 5-6 दिनों में विस्फोट हो, इन अण्डों में से तेला के निम्फ निकल आते हैं। निम्फ पत्तों की निचली सतह से रस चूस कर अपना जीवन निर्वाह करते हैं। मौसम की अनुकूलता व भोजन की उपलब्धता के अनुसार, तेले के ये निम्फ प्रौढ़ के रूप में विकसित होने के लिए 10-20 दिन का समय लेते हैं।
इस दौरान ये निम्फ तकरीबन 5 बार कांजली उतारते हैं। निम्फ से आगे का इनका यह प्रौढिय जीवन लगभग 40-50 दिन का होता है।
इस प्रकृति में खाने और खाए जाने की प्रक्रिया से तेले भी अछूते नहीं हैं। तेलों के निम्फ़ व प्रौढ़ कपास की फसल में पन्द्राह किस्म की मकडियों, तीन किस्म की कमसीन मक्खियों, तीन किस्म के कराइसोपा व चौदाह किस्म की लेडी बीटल आदि जीव-जन्नौरों का कोप भाजन बनते हैं। दस्यु बुगडे़ के प्रौढ़ एवं निम्फ, दीद्ड़ बुगडे़ के प्रौढ़ एवं निम्फ,, कातिल बुगडे़ के निम्फ व कंधेडू़ बुगडे़ के निम्फ इस कीट के खून के प्यासे होते हैं।
इस तेले के शिशुओं का खून चुसते हुए भैरों खेड़ा गावं के खेतों में कपास की फसल पर परभक्षी कुटकियाँ भी किसानों ने अपनी आँखों से देखी हैं। बामुश्किल आधा मिली मीटर लम्बी ये कुटकियाँ सुर्ख लाल रंग की थी।
इस तेले के अंडो में अंडे देने वाले भांत-भांत के परअंडिये भी भारत की फसलों में पाये जाते हैं। इनमे से Arescon enocki नामक पर अंडिया तो कारगर भी कसुता बताया गया।
तेले के प्रकोप से बचने के लिये पौधे स्वयं इन परभक्षियों, परजीव्याभों एवं परजीवियों को तरह-तरह की गंध हवा में छोड़ कर अपने पास बुलाते हैं। अदभुत तरीके हैं पौधों के पास अपनी सुरक्षा के।
किसानों को बस जरूरत है तो अपनी स्थानीय पारिस्थितिकी को समग्र दृष्टि से समझने की। बाकि काम तो कीट एवं पौधे मिलकर निपटा लेंगे।