अष्टपदी या मकडिय-जूं, जिला जींद की कपास फसल में रस चूस कर हानि पहुँचाते पाया जाने लगा है। इस जीव की आठ टाँगे होती हैं इसीलिए तो इसे कीट नही कहा जाता। हाँ! वैज्ञानिकों की दुनिया में इस जीव को “Tetranychus sp.” कहा जाता है। ये अष्टपदियाँ Tetranychidae नामक घुन परिवार से सम्बंधित हैं | इस परिवार में इन अष्टपदियों की हज़ार से भी ज्यादा प्रजातियाँ पाई जाती हैं | आमतौर पर ये महीन जीव अपनी सुरक्षा के लिए पत्तों की निचली सतह पर रेशमी जाला बुनती हैं | शायद इसी गुण के कारण इन्हें मकडिया-जूं कहा जाता है | ये अष्टपदियाँ कपास की फसल में पत्तों की निचली सतह से रस चूस कर नुकसान पहुँचाती हैं। आकार में इतनी छोटी (बामुश्किल एक मिलीमीटर) होती हैं कि किसान को मुश्किल से ही दिखाई देती हैं। यूँ तो ये जीव लाल, हरी, सन्तरी या तिनका रंगी होती हैं पर पत्तों की निचली सतह पर धूल कण सी दिखाई देती हैं। सामान्य परिस्थितियों में इनकी जीवन यात्रा 9-10 दिन की होती है ।
गर्म व शुष्क मौसम इनके लिए ज्यादा अनुकूल होता है। याद रहे अष्टपदियाँ पत्तों, तनों व बौकियों से रस चूस कर पौधों को हानि पहुँचाती हैं। इससे पत्तों में क्लोरोफिल की भी कमी हो जाती है। वांछित भोजन ना मिलने के कारण पौधों की स्वाभाविक वृध्दि व् प्रजनन प्रक्रियाएं अवरुद्ध हो जाती हैं। पर स्वभाव से अष्टपदियाँ आक्रामक घुमंतू नही होती | इसका मतलब जिस पत्ते पर जन्म हुआ वहीं या एकाध साथ वाले पत्ते पर गुज़ारा व प्रजनन कर लिया | चेपों की तरह से इन्हें रसीली फुन्गलों में कोइ दिलचस्पी नही होती |
हमारी फसलों में इन को खाने के लिए भान्त-भान्त के कीड़े पाए जाते हैं | दस्यु बुगडा अपने भोजन में खाने के लिए अष्टपदियाँ मिलने को अपना सौभाग्य समझता है। छ: बिन्दुआ चुरडे तो इन अष्टपदियों को चट करते ही हैं। इन्हें तो रस चूसक चुरडे तक साफ कर जाते हैं। विभिन्न बिटलों के बच्चे भी इन अष्टपदियों को चाव से खाते हैं। इसीलिए तो इन अष्टपदियों के नियंत्रण के लिए किसी कीटनाशक का स्प्रे करने की आवश्यकता नही होती। कीटनाशकों के अनावश्यक स्प्रो से इन अष्टपदियों को खाने वाले कीट भी बेमौत मारे जाते हैं और फसल में अष्टपदियों का प्रकोप बेकाबू हो सकता है।